Tuesday, November 29, 2011

पैर बंधे जंजीरों में ...

दूर खड़ा एक परदेशी,
देश की यादों में खोया !
पैसों की ललक में बन परदेशी,
खुली - खुली आँखों से सोया !
शौहरत की खुशियाँ पल भर की,
याद में अपनो की रात - रात रोया !
वतन लौटने की कशमकश है वो,
पर पैर बंधे जंजीरों में पाया !
यही कसक है परदेशियों की,
यहाँ गरीबी में भी खुशियाँ है छाया !

मुकेश गोस्वामी हृदयगाथा : मन की बातें

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