Wednesday, February 23, 2011

आत्म चिंतन ....



आज
मैं बैठा हूँ चिंतन करने को...

.समझ नहीं रहा है,
कि चिंतन की शुरुवात कहाँ से करूँ
चिंतन कि चिंतन से मैं चिंतित हो गया हूँ,
देश कि चिंता करूँ या खुद कि चिंता करूँ. ..
देश में बढ़ रहे भ्रष्टाचार कि चिंता करूँ,
या खुद में कम हो रहे शिष्टाचार कि चिंता करूँ ..
चिंता करूँ बईमानो कि बईमानी कि,
या खुद के इमां का आत्मसात करूँ
चिंता करूँ बढ़ते महंगाई की
या फिर अपने घटते आय कि चिंता करूँ
चिंता करूँ बिगड़ते हुए समाज-धर्मों कि
या फिर खुद से ही खुद ही फ़रियाद करूँ
चिंता करूँ उन अनाथो-बेसहारों का
या फिर किसी असहाय को सहाय करूँ
चिंता करूँ लोगों में घटते संस्कारों कि
या फिर अपने कुकर्मो पे कुठाराघात करूँ
चिंता करूँ सीमापार के आतंकियों क़ी
या फिर घर के देश द्रोहियों का ही नाश करूँ
क्या-क्या कि मैं चिंता करूँ...?
चिंतन कि चिंतन यहीं समाप्त करें !
नहीं रहा अब चिंतन का समय चलो,
अब कहीं से हो सही एक शुरुवात करें

Friday, February 18, 2011

कविता वृशाली के नाम....

वृष्टि होती है शबनम की जब तुम मुस्काती हो, सच कहूँ तुम दिल को भाती हो!
शायद ना हो कोई ऐसा जिसे तुम न सताती हो, फिर लाड-प्यार से क्यूँ मानती हो!
लीला तुम्हारी बचपन की देखकर सब मुस्काते थे, अब गंभीर क्यूँ बन जाती हो!
........सच कहूँ फिर भी तुम मेरे मन को बहुत भाती हो

Tuesday, February 15, 2011

जीवनदायनी....


ये कैसी ममता है जिसमे आंचल की छावं नहीं,

मन कुंठित हो जाता है, ममत्व से विश्वास उठता नहीं !


जालिम दुनिया के डर से औलाद को दफ़न क्यूँ करती हो,


बन कर सिंघनी तुम क्यूँ नहीं ज़माने से लडती हो !


पलभर की ख़ुशी-सुकून की खातिर मर्यादा का हनन करती हो,

कृष्ण रूपी को यूँ जीते जी काल के हाथों में जतन करती हो !


खोकर सपूत को अपने क्या तुम पल-पल नहीं मरती हो,


फिर
क्यूँ तुम जीवनदायनी होकर जीवन-हरण करती हो !