Tuesday, January 24, 2012

श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती



काश मैं होता जल निर्मल, तुम निर्झर सरिता होती
और श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती !
मैं तन्हा होता अकेला सा, तुम भी तन्हा होती
और श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती !
खमोशी फैली होती फिज़ाओं में, तुम भी खामोश होती
और श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती !
काश खुशबु बहती हवाओं में, तुम सुंगंध पहचान रही होती
और श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती !
ह्रदय मेरा पर्वत विशाल, तुम भी पत्थर दिल होती
और श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती !
चर्चा इश्क का गली-गली, काश हाल-ए-दिल तुम जान रही होती
और श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती !



8 comments:

  1. बहुत खूब.....सुन्दर कविता है |

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  2. MUKESH AAP BAHOT HI ACHCHHA LIKHTE HAI . AUR AISE HI LIKHTE RAHE . LIFE MEIN BAHOT PROGRESS KARE . JO CHAHE HASEEL KARE . AUR YE KASHHH WORD AAPKI DICTIONARY SE NIKAL JAYE HUMESHA K LIYE . GOD BLESS U ...............

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  3. वाह मुकेश जी ,
    बहुत अच्छा लिखा है आपने,
    ख़ुशी हुयी आप हमारे ब्लॉग पर आये ,
    आते रहिएगा ..

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  4. चर्चा इश्क का गली-गली,
    काश हाल-ए-दिल तुम जान रही होती
    और श्रृंगार से सजी मेरी कविता होती !
    Wah! Kya baat hai!

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  5. शास्त्री जी सादर धन्यवाद एवं आभार

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  6. क्षमा जी नमस्कार
    स्वागतम सहित सादर धन्यवाद एवं आभार..

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