कभी ख़्वाब सजाया था कि,
तेरे जुल्फों में फूल गुलाब का लगायेंगे
मगर ये हो न सका ...
सपने बुने थे कि,
तेरे लिए चाँद -सितारे जमी में लायेंगे
मगर ये हो न सका ...सपने बुने थे कि,
तेरे लिए चाँद -सितारे जमी में लायेंगे
ऐसी हसरत थी कि
जब लौटूं घर को तेरा मुस्कुराता मुखड़ा सामने हो
मगर ये हो न सका ...
जब भी नींद खुले कि
तेरे मासूम सी खिलखिलाहट से सुबह हो
मगर ये हो न सका ...
मगर ये हो न सका ...
अक्सर हम कसमे खाते थे कि
कभी आँखों में आसूं आने नही देंगे
मगर ये हो न सका ...
तुझे अकेले दर्द उठाने नही देंगे
कठिन डगर में साथ चलते जायेंगे
मगर ये हो न सका ...
तुम थाली खाने की लेकर आते कि
औरो से नज़ारे चुरा चिकोटी काट जाया करती
मगर ये हो न सका ...
थाली में रोटियां जबरन परोस जाया करती
और रसोई से नज़रे मिलाया करती
मगर ये हो न सका ...
जब तुम थककर सो जाया करती
मैं तुम्हे जगाया करता
मगर ये हो न सका ...
जो गम हो या ख़ुशी हो
हरदम तुझे समझाऊ गले लगाऊ
मगर ये हो न सका ...
मेरे खातिर सबसे लड़ जाती
मुझसे घर में झगड़े लड़ाती
मगर ये हो न सका ...
कवितायेँ लिखता मैं और
तुम शब्दों का सजाया करती
मगर ये हो न सका ...
बोल मेरे हुआ करते
और गीत तुम गाया करती
मगर ये हो न सका ..
मगर ये हो न सका ...
मगर ये हो न सका ...
सुंदर प्रस्तुति
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