Sunday, September 15, 2013

देखा एक ख्वाब...


क्या लिखूं तू बेवफा जो हो गयी है
झूट के बाज़ार कहाँ  खो गयी है
उम्मीद न थी की तू बेरहम होगी 
सोचा  था साथ  जन्मो तक दोगी 
मगर ख्वाब हकीकत से तोड़ दिया 
मेरी मुहब्बत  को धोका दे छोड़ दिया 
मौत से तो लड़ जीत आया मैं 
 फिर क्यूँ खुद से तुझको दूर पाया मैं
मुकेश गिरि गोस्वामी : हृदयागाथा -मन की बातें

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (16-09-2013) गुज़ारिश प्रथम पुरूष की :चर्चामंच 1370 में "मयंक का कोना" पर भी है!
    हिन्दी पखवाड़े की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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